Ramchndr shukl ke kathan pdf रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन | Ramhndr shukl ke kathan pdf रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन | Ramchndr shukl ke kathan रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन | Ramchndr shukl ke kathan pdf | Ramchndr shukl k kathan pdf रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन |
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (11 अक्टूबर, 1884ईस्वी- 2 फरवरी, 1941ईस्वी) हिन्दी समालोचक, कहानीकार, निबन्धकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि थे। उनके द्वारा लिखी गई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है हिन्दी साहित्य का इतिहास, जिसके द्वारा आज भी काल निर्धारण एवं पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता ली जाती है। हिन्दी में पाठ आधारित वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात भी उन्हीं के द्वारा हुआ।
Ramchndr shukl ke kathan pdf रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन
खड़ी बोली का गद्य-
No.-1. देश के भिन्न भिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली की दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली शिष्ट समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा हो चली थी।
No.-2. किसी भाषा का साहित्य में व्यवहार न होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं था।अकबर और जहाँगीर के समय में ही खड़ी बोली भिन्न भिन्न प्रदेशों में शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो चली थी। यह भाषा उर्दू नहीं कही जा सकती; यह हिन्दी खड़ी बोली है।
No.-3. विक्रम संवत् 1798 में रामप्रसाद ‘निरंजनी’ ने ‘भाषायोगवासिष्ठ’ नाम का ग्रंथ साफ सुथरी खड़ी बोली में लिखा।’भाषायोगवासिष्ठ’ को परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक और राम प्रसाद निरंजनी को प्रथम प्रौढ़ गद्यलेखक मान सकते हैं।
No.-4. 1860 में फोर्ट विलियम कॉलेज (कलकत्ता) के हिन्दी उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्था की तब उन्होंने उर्दू और हिन्दी दोनों के लिए अलग अलग प्रबंध किया।
No.-5. खड़ी बोली गद्य को एक साथ आगे बढ़ानेवाले चार महानुभाव हुए हैं , मुंशी सदासुख लाल, सैयद इंशाअल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र।
मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’-
No.-1. उन्होंने अपने हिन्दी गद्य में कथावाचकों, पंडितों और साधु संतों के बीच दूर दूर तक प्रचलित खड़ी बोली का रूप रखा, जिसमें संस्कृत शब्दों का पुट भी बराबर रहता था। इसी संस्कृतमिश्रित हिन्दी को उर्दूवाले ‘भाषा’ कहते थे।
इंशाअल्ला खाँ–
No.-1. इंशा का उद्देश्य ठेठ हिन्दी लिखने का था जिसमें हिन्दी को छोड़कर और किसी बोली का पुट न रहे।इंशा ने अपनी भाषा को तीन प्रकार के शब्दों से मुक्त रखने की प्रतिज्ञा की है, बाहर की बोली अरबी, फारसी, तुरकी। गँवारी = ब्रजभाषा, अवधी आदि। भाखापन = संस्कृत के शब्दों का मेल।
No.-2. आरंभकाल के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकीली, मटकीली, मुहावरेदार और चलती है।
लल्लूलालजी-
No.-1. इंशा के समान इन्होंने केवल ठेठ हिन्दी लिखने का संकल्प तो नहीं किया था पर विदेशी शब्दों के न आने देने की प्रतिज्ञा अवश्य लक्षित होती है।
No.-2. यद्यपि मुंशी सदासुखलाल ने भी अरबीफारसी के शब्दों का प्रयोग न कर संस्कृतमिश्रित साधु भाषा लिखने का प्रयत्न किया है पर लल्लूलाल की भाषा से उसमें बहुत कुछ भेद दिखाई पड़ता है।
No.-3. मुंशीजी की भाषा साफसुथरी खड़ी बोली है पर लल्लूलाल की भाषा कृष्णोपासक व्यासों की-सी ब्रजरंजित खड़ी बोली है।
No.-4. अकबर के समय में गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी थी वैसी ही खड़ी बोली लल्लूलाल ने भी लिखी। दोनों की भाषाओं में अंतर इतना ही है कि गंग ने इधर उधर फारसी अरबी के प्रचलित शब्द भी रखे हैं पर लल्लूलालजी ने ऐसे शब्द बचाए हैं।
No.-5. सारांश यह कि लल्लूलालजी का ‘काव्याभास’ गद्यभक्तों की कथावार्ता के काम का ही अधिकतर है, न नित्य व्यवहार के अनुकूल है, न संबद्ध विचारधारा के योग्य।
No.-6. लल्लूलाल ने उर्दू, खड़ी बोली हिन्दी और ब्रजभाषा तीनों में गद्य की पुस्तकें लिखीं। ये संस्कृत नहीं जानते थे।
सदल मिश्र-
No.-1. लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों की वैसी भरमार है और न परंपरागत काव्य भाषा की पदावली का स्थान स्थान पर समावेश।
No.-2. इन्होंने व्यवहारोपयोगी भाषा लिखने का प्रयत्न किया है और जहाँ तक हो सकता है खड़ी बोली का ही व्यवहार किया है। पर इनकी भाषा भी साफ सुथरी नहीं। ब्रजभाषा के भी कुछ रूप हैं और पूरबी बोली के शब्द तो स्थान स्थान पर मिलते हैं।
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No.-3. गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले उपर्युक्त चार लेखकों में से आधुनिक हिन्दी का पूरा पूरा आभास मुंशी सदासुखलाल और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है।
No.-4. व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है। इन दो में मुंशी सदासुख की साधु भाषा अधिक महत्व की है। मुंशी सदासुख ने लेखनी भी चारों में पहले उठाई अत: गद्य का प्रवर्तन करनेवालों में उनका विशेष स्थान समझना चाहिए।
गद्य साहित्य का आविर्भाव-
No.-1. ‘मानवधर्मसार’ की भाषा राजा शिवप्रसाद की स्वीकृत भाषा नहीं है। प्रारंभकाल से ही वे ऐसी चलती ठेठ हिन्दी के पक्षपाती थे जिसमें सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबीफारसी शब्दों का भी स्वच्छंद प्रयोग हो।
No.-2. यद्यपि अपने ‘गुटका’ में जो साहित्य की पाठयपुस्तक थी उन्होंने थोड़ी संस्कृत मिली ठेठ और सरल भाषा का ही आदर्श बनाए रखा, पर संवत् 1917 के पीछे उनका झुकाव उर्दू की ओर होने लगा जो बराबर बना क्या रहा, कुछ न कुछ बढ़ता ही गया।
No.-3. किसी देश के साहित्य का संबंध उस देश की संस्कृति परंपरा से होता है। अत: साहित्य की भाषा उस संस्कृति का त्याग करके नहीं चल सकती। भाषा में जो रोचकता या शब्दों में जो सौंदर्य का भाव रहता है वह देश की प्रकृति के अनुसार होता है।
No.-4. जिस प्रकार इधर संयुक्त प्रांत में राजा शिवप्रसाद शिक्षाविभाग में रहकर हिन्दी की किसी न किसी रूप में रक्षा कर रहे थे उसी प्रकार पंजाब में बाबू नवीनचंद्र राय महाशय कर रहे थे।
No.-5. राजा शिवप्रसाद ‘आमफहम’ और ‘खासपसंद’ भाषा का उपदेश ही देते रहे, उधर हिन्दी अपना रूप आप स्थिर कर चली।
आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन प्रथम उत्थान-
No.-1. आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान घटना है।
No.-2. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गए। मुंशी सदासुख की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊपन लिए थी, लल्लूलाल में ब्रजभाषापन और सदल मिश्र में पूरबीपन था।
No.-3. राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही परिमित न था वाक्यविन्यास तक में घुसा था, राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा विशुद्ध और मधुर तो अवश्य थी, पर आगरे की बोलचाल का पुट उसमें कम न था। भाषा का निखरा हुआ सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ।
No.-4. पं. प्रतापनारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अत: उनकी भाषा बहुत स्वच्छंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभंगिमा लिए चलती है। हास्य विनोद की उमंग में वह कभी कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चलती है।
No.-5. पं. बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर वैसी ही होती थी जैसी खरी खरी सुनाने में काम में लाई जाती है।
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No.-6. हरिश्चंद्र तथा उनके समसामयिक लेखकों में जो एक सामान्य गुण लक्षित होता है वह है सजीवता या जिंदादिली। सब में हास्य या विनोद की मात्रा थोड़ी या बहुत पाई जाती है।
No.-7. विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ।
No.-8. खेद के साथ कहना पड़ता है कि भारतेंदु के समय में धूम से चली हुई नाटकों की वह परंपरा आगे चलकर बहुत शिथिल पड़ गई।
No.-9. पं. शीतलाप्रसाद त्रिपाठीकृत ‘जानकीमंगल नाटक’ का जो धूमधाम से अभिनय हुआ था उसमें भारतेंदु जी ने पार्ट लिया था।
No.-10. प्रतापनारायण मिश्र का अपने पिता से अभिनय के लिए मूँछ मुड़ाने की आज्ञा माँगना प्रसिद्ध ही है।
No.-11. अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले पहल हिन्दी में लाला श्रीनिवासदास का ‘परीक्षागुरु’ ही निकला था।
No.-12. ‘ब्राह्मण’ संपादक पं. प्रतापनारायण मिश्र को ग्राहकों से चंदा माँगते माँगते थककर कभी कभी पत्र में इस प्रकार याचना करनी पड़ती थी- ‘आठ मास बीते, जजमान! अब तौ करौ दच्छिना दान’
भारतेंदु-
No.-1. नाटक के संदर्भ में- प्राचीन और नवीन का ही सुंदर सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है।
No.-2. अपने समय के सब लेखकों में भारतेंदु की भाषा साफ सुथरी और व्यवस्थित होती थी।
प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट-
No.-1. पं. प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने हिन्दी गद्य साहित्य में वही काम किया है जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था।
उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी-
No.-1. उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी (प्रेमघन) की शैली सबसे विलक्षण थी। ये गद्य रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करने वाले, कलम की कारीगरी समझने वाले, लेखक थे और कभी कभी ऐसे पेचीले मजमून बाँधाते थे कि पाठक एक एक, डेढ़ डेढ़ कॉलम के लंबे वाक्य में उलझा रह जाता था।
No.-2. अनुप्रास और अनूठे पदविन्यास की ओर भी उनका ध्यान रहता था। किसी बात को साधारण ढंग से कहे जाने को ही वे लिखना नहीं कहते थे।
No.-3. समालोचना का सूत्रपात हिन्दी में एक प्रकार से भट्टजी और चौधारी साहब ने ही किया। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके गुण दोष के विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई।
सामान्य परिचय-
No.-1. हमारा हिन्दी साहित्य पं.महावीरप्रसाद द्विवेदी का सदा ऋणी रहेगा। व्याकरण की शुद्धता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदीजी ही थे। ‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में उन्होंने आई हुई पुस्तकों के भीतर व्याकरण और भाषा की अशुद्धियाँ दिखाकर लेखकों को बहुत कुछ सावधान कर दिया।
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मौलिक उपन्यास-
No.-1. हिन्दी साहित्य के इतिहास में बाबू देवकीनंदन का स्मरण इस बात के लिए सदा बना रहेगा कि जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किए उतने और किसी ग्रंथकार ने नहीं।
No.-2. चंद्रकांता पढ़ने के लिए न जाने कितने उर्दूजीवी लोगों ने हिन्दी सीखी। चंद्रकांता पढ़ चुकने पर वे ‘चंद्रकांता’ की किस्म की कोई किताब ढूँढ़ने में परेशान रहते थे। शुरू शुरू में चंद्रकांता और ‘चंद्रकांता संतति’ पढ़कर न जाने कितने नवयुवक हिन्दी के लेखक हो गए।
पं. किशोरी लाल गोस्वामी-
No.-1. साहित्य की दृष्टि से उन्हें हिन्दी का पहला उपन्यासकार कहना चाहिए।
छोटी कहानियाँ-
No.-1. यदि मार्मिकता की दृष्टि से भावप्रधान कहानियों को चुनें तो तीन मिलती हैं, ‘इंदुमती’, ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और ‘दुलाईवाली’। यदि ‘इंदुमती’ किसी बँग्ला कहानी की छाया नहीं है तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरांत ‘ग्यारह वर्ष का समय’ फिर ‘दुलाईवाली’ का नंबर आता है।
निबंध-
No.-1. यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है।
No.-2. पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के अधिकतर लेख ‘बातों के संग्रह’ के रूप में ही हैं। भाषा के नूतन शक्ति चमत्कार के साथ नए नए विचारों की उद्भावना वाले निबंध बहुत ही कम मिलते हैं।
No.-3. द्विवेदीजी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है। एक एक सीधी बात कुछ हेरफेर, कहीं-कहीं केवल शब्दों के ही, साथ पाँच छह तरह के पाँच छह वाक्यों में कही हुई मिलती है।
समालोचना-
No.-1. हिन्दी साहित्य में समालोचना पहले पहल केवल गुण दोष दर्शन के रूप में प्रकट हुई। लेखों के रूप में इसका सूत्रपात बाबू हरिश्चंद्र के समय में ही हुआ। लेख के रूप में पुस्तकों की विस्तृत समालोचना उपाधयाय पं. बद्रीनारायण चौधरी ने अपनी ‘आनंदकादंबिनी’ में शुरू की।
No.-2. किसी ग्रंथकार के गुण अथवा दोष ही दिखलाने के लिए कोई पुस्तक भारतेंदु के समय में न निकली थी। इस प्रकार की पहली पुस्तक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘हिन्दी कालिदास की आलोचना’ थी जो इस द्वितीय उत्थान के आरंभ में ही निकली।
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गद्य साहित्य की वर्तमान गति : तृतीय उत्थान-
No.-1. यह ठीक है कि विज्ञान की साधना द्वारा संसार के वर्तमान युग का बहुत सा रूप योरप का खड़ा किया हुआ है। पर इसका क्या यह मतलब है कि युग का सारा रूपविधान योरप ही करे और हम आराम से जीवन के सब क्षेत्रों में उसी के दिए हुए रूप को लेकर रूपवान बनते चलें? क्या अपने स्वतंत्र स्वरूपविकास की हमारी शक्ति सब दिन के लिए मारी गई?
No.-2. आजकल भाषा की भी बुरी दशा है। बहुत से लोग शुद्ध भाषा लिखने का अभ्यास होने के पहले ही बड़े बड़े पोथे लिखने लगते हैं जिनमें व्याकरण की भद्दी भूलें तो रहती ही हैं, कहीं कहीं वाक्यविन्यास तक ठीक नहीं रहता।
No.-3. यह बात और किसी भाषा के साहित्य में शायद ही देखने को मिले। व्याकरण की भूलों तक ही बात नहीं है। अपनी भाषा की प्रकृति की पहचान न रहने के कारण कुछ लोग उसका स्वरूप भी बिगाड़ चले हैं।
No.-4. वे अंग्रेजी के शब्द, वाक्य और मुहावरे तक ज्यों के त्यों उठाकर रख देते हैं, यह नहीं देखने जाते कि हिन्दी हुई या और कुछ।
उपन्यास/ कहानी-
No.-1. अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले-पहले हिन्दी में लाला श्रीनिवास दास का परीक्षा गुरु निकला था।
No.-2. साहित्य को राजनीति के ऊपर रहना चाहिए; सदा उसके इशारों पर ही न नाचना चाहिए।
आलोचना-
No.-1. यदि हम काव्य को ही लें तो इस ‘अभिव्यंजनावाद’ को ‘वाग्वैचित्रयवाद’ ही कह सकते हैं और इसे अपने यहाँ के पुराने ‘वक्रोक्तिवाद’ का विलायती उत्थान मान सकते हैं।
कविता (भरतेंदुयुग)-
No.-1. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस प्रकार गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर करके गद्य साहित्य को देशकाल के अनुसार नए नए विषयों की ओर लगाया, उसी प्रकार कविता की धारा को भी नए नए क्षेत्रों की ओर मोड़ा।
No.-2. इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था। उसी से लगे हुए विषय लोकहित, समाजसुधार, मातृभाषा का उध्दार आदि थे। हास्य और विनोद के नए विषय भी इस काल में कविता को प्राप्त हुए।
No.-3. भारतेंदुजी ने हिन्दी काव्य को केवल नए नए विषयों की ओर ही उन्मुख किया, उसके भीतर किसी नवीन विधान या प्रणाली का सूत्रपात नहीं किया।
No.-4. गद्य को जिस परिमाण में भारतेंदु ने नए नए विषयों और मार्गाें की ओर लगाया उस परिमाण में पद्य को नहीं।
No.-5. भारतेंदु के सहयोगी लेखक यद्यपि देशकाल के अनुकूल नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त हुए, पर भाषा उन्होंने परंपरा से चली आती हुई ब्रजभाषा ही रखी और छंद भी वे ही लिए जो ब्रजभाषा में प्रचलित थे।
मैथिलीशरण गुप्त-
No.-1. गुप्त जी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि है;प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमाने वाले कवि नहीं हैं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें है।”
छायावाद-
No.-1. छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु से होता है अर्थात जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है।
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No.-2. छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति विशेष की व्यापक अर्थ में हैं।
No.-3. ‘छायावाद’ नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्रय, वस्तुविन्यास की विशृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साधय मानकर चले।
No.-4. पन्त, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीक-पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए।छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।
No.-5. छायावाद का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लिखकर तो हिन्दी काव्य-क्षेत्र में चलने वाली सुश्री महादेवी वर्मा ही हैं।
No.-6. छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।
No.-7. छायावाद की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेमगीतात्मक है।
जयशंकर प्रसाद-
No.-1. इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहेतो यह कहें कि इनकी मधुवर्षा के मानस प्रचार के लिए रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानूभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जा रही।
महादेवी वर्मा-
No.-1. इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक