kavya-hetu  भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य हेतु

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काव्य हेतु किसी कवि की वह शक्ति है जिससे वह काव्य रचना में समर्थ होता है। इसके अंतर्गत काव्य-सृजन की विविध प्रक्रियाओं का विवेचन किया जाता है। काव्य हेतु में ‘हेतु’ का अर्थ ‘कारण’ होता है, अतः इसे काव्य रचना का कारण भी कह सकते हैं।गुलाब राय के अनुसार, ‘हेतु का अभिप्राय उन साधनों से है जो कवि की काव्य रचना में सहायक होते हैं।’

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काव्य हेतु का विभाजन

भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य हेतु (kavya hetu) के तीन भेद बताए गए हैं-

(a)  प्रतिभा, (b)  व्युत्पत्ति, (c)  अभ्यास

No.-1. राजशेखर ने प्रतिभा के दो भेद किये हैं-

क. कारयित्री प्रतिभा, ख. भावयित्री प्रतिभा

No.-2. कारयित्री प्रतिभा को आचार्यों ने तीन भागों में विभाजित किया है-

(a)  सहजा, (b)  आहार्या, (c)   औपदेशिकी

प्रतिभा

No.-1. काव्य का पहला हेतु प्रतिभा है, जो काव्य की अनिवार्य शक्ति है। जिसके बिना काव्यसृजन संभव नहीं होता है। इसीलिए इसे कवित्व का बीज माना गया है। प्रतिभा को जन्मजात, दैवी शक्ति और संस्कार रूप में माना है।

No.-2. आचार्य मम्मट ने प्रतिभा को ‘शक्ति’ माना है, वे शक्ति, निपुणता और अभ्यास को सम्मिलित रूप से काव्य हेतु मानते हैं। ‘काव्य प्रकाश’ में उन्होंने लिखा है कि-‘शक्तिर्निपुणतालोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात्।काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।’

No.-3. अर्थात् शक्ति ( कवित्व का बीज रूप संस्कार), लोक-व्यवहार, शास्त्र तथा काव्य आदि के अनुशीलन और ज्ञान से उत्पन्न योग्यता एवं शिक्षा द्वारा प्राप्त अभ्यास ही काव्य के हेतु है।

No.-4. आचार्य राजशेखर ने ‘काव्यमीमांसा’ में काव्य हेतु ‘प्रतिभा’ का विशद् विवेचन किया है। उन्होंने ही प्रतिभा काव्य हेतु के दो भेद किये-

क. कारयित्री प्रतिभा ख. भावयित्री प्रतिभा

No.-5. उन्होंने लिखा की ‘काव्य की सर्जना करने वाली’ को कारयित्री और उसका ‘रसास्वादन कराने वाली’ को भावयित्री प्रतिभा कहते हैं। उन्होंने पुन: ‘ कारयित्री प्रतिभा’ के तीन भेद किये-

  1. सहजा, ii. आहार्या, iii. औपदेशिकी

No.-6. आचार्य राजशेखर ‘सहजा’  को जन्मजात प्रतिभा, अभ्यास द्वारा अर्जित प्रतिभा को  ‘आहार्या’ और शास्त्र आदि के उपदेश से प्राप्त होने वाली प्रतिभा को ‘औपदेशिकी’  मानते हैं।

No.-7.  इसी के आधार पर कवियों की क्रम कोटि सारस्वत, आभ्यासिक और औपदेशिक का निर्धारण किया।

 व्युत्पत्ति

No.-1. काव्य का दूसरा हेतु व्युत्पत्ति है। राजशेखर  के अनुसार, उचित-अनुचित का विवेक व्युत्पत्ति है- ‘उचितनुचिता विवेको व्युत्पत्ति:।

No.-2. वे इस व्युत्पत्ति हेतु का अर्थ ‘बहुज्ञता’  मानते हैं।

No.-3. आचार्य वामन ने इसका अर्थ ‘विद्या परिज्ञान’ माना है।

No.-4. आचार्य रुद्रट के अनुसार ‘छन्द, व्याकरण, कला, लोकस्थिति, पद और पदार्थो के विशेष ज्ञान से उचित अनुचित को सम्यक् परिज्ञान ही व्युत्पत्ति है।’

No.-5. आचार्य मम्मट ने व्युत्पत्ति को ‘निपुणता’  माना है। उनके अनुसार निपुणता लोक-जीवन के अनुभव और निरीक्षण, शास्त्रों के अनुशीलन तथा काव्यादि विवेचन का परिणाम है।

No.-6. संक्षेप में कहा जा सकता है कि बहुज्ञता में व्याकरण, शास्त्र, पुराण, इतिहास, लोकज्ञान आदि इसमें समाहित है, जो कवि अर्जित करता है और काव्य रचना में प्रयुक्त कर उसे व्यापक अर्थ संदर्भ से युक्त बनाता है।

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 अभ्यास

No.-1. आचार्य राजशेखर  के अनुसार, ‘निरन्तर प्रयास करते रहने को अभ्यास कहते हैं।’ कहने का तात्पर्य यह है की अभ्यास व अनुशीलन, काव्य रचना को दोषमुक्त और स्वच्छ बनाने में सहायक होता है।

No.-2. निष्कर्ष रूप में प्रतिभा ही महत्वपूर्ण काव्यहेतु सिद्ध होता है। व्युत्पत्ति और अभ्यास उसके सहायक तत्त्व माने जा सकते हैं, जो काव्य रचना को पूर्णता प्रदान करने में आवश्यक है।

 

काव्य हेतु के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों की दृष्टि

No.-1. आचार्य भामह ने ‘काव्यालंकार’  में कवि की प्रतिभा को ही काव्य-सृजन का मूल हेतु माना है।

No.-2. ‘गुरुपदेशादध्येतुं शास्त्रं जडधियोऽप्यलम्।

No.-3. काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः।।’

No.-4. आचार्य दण्डी ने नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल शास्त्र ज्ञान तथा सुदृढ़ अभ्यास को काव्य सृजन का हेतु माना है-

No.-5. ‘नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्।

No.-6. अमन्दाश्चाभि योगोऽस्याः कारणं काव्य संपदः।।’

No.-7. आचार्य वामन ने ‘काव्य-हेतु’ के बदले ‘काव्यांग’ शब्द का प्रयोग किया है। इन्होंने लोक, विद्या और प्रकीर्ण को काव्यांग (काव्य-हेतु) स्वीकार किया है। यहाँ पर लोक का तात्पर्य लोक व्यवहार है-

No.-8. ‘लोको विद्याप्रकीर्णस्य काव्यांगानि।’

No.-9. आचार्य वामन प्रतिभा को ही काव्य-सृजन का मूल हेतु मनते हैं-

No.-10. ‘कवित्वस्य बीजम् प्रतिभानं कवित्व बीजम्।’

No.-11. आचार्य रुद्रट ने शक्ति (प्रतिभा), व्युत्पति और अभ्यास तीनों को काव्य हेतु माना है। इन्होंने प्रतिभा को शक्ति कहा है

No.-12. आचार्य रुद्रट ने प्रतिभा के दो भेद- सहजा और उत्पद्या, को माना है। इनके अनुसार सहजा नैसर्गिक शक्ति है तथा उत्पाद्या व्युत्पत्ति शक्ति है।

No.-13. आचार्य मम्मट ने शक्ति, निपुणता तथा अभ्यास का संयुक्त रूप में हेतु माना है।

No.-14. ‘शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात्।

No.-15. काव्यज्ञ शिक्षाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।’

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No.-16. आचार्य जयदेव ने चन्द्रालोक में लिखा है कि- ‘श्रुत (व्युत्पत्ति) और अभ्यास सहित प्रतिभा ही कविता का हेतु है, जैसे मिट्टी-पानी के संयोग से बीज बढ़कर लता का रूप ग्रहण करता है।

No.-17. पण्डित राज जगन्नाथ ने व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य का हेतु नहीं माना है, वे प्रतिभा को ही काव्य का हेतु स्वीकार करते हैं, इसीलिए इन्हें प्रतिभावादी कहा जाता है-

No.-18. ‘तस्य च कारणं कविगता केवलां प्रतिभा।’

No.-19. आचार्य भट्टतौत ने प्रतिभा को ‘नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा’ कहा है।

No.-20. आचार्य अभिनवगुप्त ने प्रतिभा को ‘अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा’ कहा है।

No.-21. आचार्य राजशेखर ने स्मृति, मति और प्रज्ञा को  बुद्धि के तीन प्रकार माना है।

काव्य हेतु के सम्बन्ध में रीतिकालीन आचार्यों की दृष्टि

No.-1. हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों ने काव्य हेतु पर विचार करते समय संस्कृत आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य हेतुओं को ही स्वीकार किया। किसी मौलिक तत्व की उद्भावना नहीं की।

No.-2. मध्यकालीन आचार्यों में कुलपति ने सर्वप्रथम काव्य हेतु का विवेचन किया।

No.-3. आचार्य भिखारीदास ने काव्य रचना के लिए प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों को अनिवार्य माना। उसका कहना है कि जैसे रथ एक चक्र से नहीं चल सकता उसी प्रकार केवल प्रतिभा व्युत्पत्ति या मात्र अभ्यास से काव्य रचना सम्भव नहीं हो सकती है।

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काव्य हेतु के सम्बन्ध में आधुनिक विचारकों की दृष्टि

No.-1. आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने प्रतिभा को ‘अन्त: करण की उद्भावित क्रिया’  कहा है।

No.-2. अज्ञेय ने ‘त्रिशंकु’ में लिखा है की- ‘कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणिक करने का प्रयत्न, अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह है।’

No.-3. मैथिलीशरण गुप्त के अनुसार- ‘जो अपूर्ण कला उसी की पूर्ति है’

No.-4. गोविन्द त्रिगुणायत ने मनुष्य की मनन शीलता को ही काव्य का प्रमुख हेतु मानते हैं उन्होंने लिखा है की ‘मेरी समझ में काव्य की जनयित्री मनुष्य की प्राणभूत विशेषता उसकी मनन की प्रवृत्ति है।’

No.-5. इस प्रकार वे प्रतिभा व्युत्पत्ति आदि को काव्य का सहायक हेतु मानते हैं। किन्तु विद्वानों का विशाल समूह साहित्य रचना के लिए प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को महत्त्व देता है।

No.-6. सुरेश अग्रवाल के शब्दों में ‘साहित्य के उदय के लिए साहित्यिक प्रतिभा और विज्ञान के आविष्कार के लिए वैज्ञानिक प्रतिभा नितान्त अनिवार्य है।

No.-7.  हां मनन शीलता इन दोनों को अधिकाधिक विकसित एवं सुनियोजित करने में बहुत सहायक होती है, इस बात में कोई संदेह नहीं। मननशीलता को हम व्युत्पत्ति और अभ्यास का समन्वित रूप कह लें, तो हमारे विचार में अधिक उचित होगा।’

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