Home India History उत्तर-वैदिक काल (वैदिक सभ्यता)

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ऋग्वैदिक काल में आर्यों का निवास स्थान सिंधु तथा सरस्वती नदियों के बीच में था। बाद में वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल चुके थे। सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान हो गया था। गंगा को आज भारत की सबसे पवित्र नदी माना जाता है।

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उत्तर वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति

No.-1. उत्तर-वैदिक काल को ‘परिवर्तनशील काल’ (Transitional Phase) कहा जाता है।

No.-2. इस काल के साहित्यिक स्रोतों में तीनों वेद-सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थ एवं उपनिषद प्रमुख हैं।

No.-3. पुरातात्त्विक साक्ष्यों में उत्तरवैदिककाल में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड एवं लोहे के प्रयोग के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।

No.-4. उत्तर-वैदिककाल में स्थायी ग्राम व्यवस्था का आविर्भाव एवं कवीलाई तत्त्वों का पतन होने लगा था।

No.-5. उत्तर-वैदिककाल में कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था का जन्म हो चुका था।

No.-6. उत्तर-वैदिककालीन साहित्य 1000-600 ई.पू. के मध्य गंगा के ऊपरी मैदान में लिखी गई।

उत्तर-वैदिक काल (वैदिक सभ्यता)

No.-1. जिसके फलस्वरूप उत्तर-वैदिकयुगीन संस्कृति का काल 1000-600 ई. पू. के मध्य माना जाता है।

No.-2. उत्तर-वैदिककालीन साहित्य के अनुसार इस काल के आर्य पंजाब से चलकर गंगा और यमना के मध्य सारे पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैल गए थे।

No.-3. इस काल के उत्खनित स्थलों में हस्तिनापुर, कौशाम्बी एवं अहिच्छत्र प्रमुख थे।

No.-4. उत्खनन और अनुसंधानों के फलस्वरूप उत्तर-वैदिककालीन संस्कृति के 700 स्थल प्रकाश में आये हैं, जहाँ सबसे पहले वस्तियाँ स्थापित हुई थी।

No.-5. इन बस्तियों को चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Grayware) या पी. जी. डब्ल्यू स्थल कहते हैं।

No.-6. भारत और पुरू नामक कबीले मिलकर उत्तरवैदिककाल में कुरू नाम से जाने गये, उन्हीं के नाम पर ‘कुरुक्षेत्र’ नाम पड़ा।

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उत्तर-वैदिककालीन राजनीति एवं प्रशासन

No.-1. साहित्यिक ग्रन्थों में आर्यों के मध्यदेश एवं कुरुक्षेत्र तक प्रसार के साक्ष्य मिलते हैं।

No.-2. ‘शतपथ ब्राह्मणम्’ के अनुसार आर्यों का प्रसार सदानीरा या गण्डक नदी तक हो चुका था।

No.-3. दक्षिणी क्षेत्र में विदर्भ तक आर्य प्रसारित हो चुके थे।

No.-4. उत्तर-वैदिककाल में कवीलों का स्थान क्षेत्रीय राज्यों ने ले लिया था।

No.-5. वैदिककालीन तुर्वश एवं क्रिवी ने मिलकर पांचाल कवीले को जन्म दिया।

No.-6. करु एवं पांचालों ने मिलकर हस्तिनापुर (मेरठ) में अपनी राजधानी स्थापित की।

No.-7. 950 ई. पू. कुरु कबीलों के दो गुट-कौरव एवं पांडवों में भरत-युद्ध हुआ, जिसमें कुरु-कवीले का विनाश हुआ।

No.-8. महाभारत नामक महाकाव्य में इसी युद्ध का विस्तृत वर्णन किया गया है।

No.-9. हस्तिनापुर वाढ़ से नष्ट हो गया एवं वहाँ के शेष कुरु कवीले के लोग कौशाम्बी में बस गये।

No.-10. दार्शनिक एवं विद्वानों के कारण प्रसिद्ध ‘कांपिल्य’ पांचालों की राजधानी थी।

No.-11. राजा प्रवाहक जावालि पांचालों का प्रसिद्ध दार्शनिक था।

No.-12. विदेह की राजधानी ‘मिथिला’ के राजा जनक थे।

No.-13. उत्तर-वैदिककालीन क्षेत्रीय राज्यों का उदय सैन्य शक्ति के आधार पर हुआ था।

No.-14. पैतृक राजतन्त्र की अवधारणा का विकास होने लगा था।

No.-15. वैदिकयुग में राजा के अधिकारों एवं शक्ति में वृद्धि हो गई थी तथा राष्ट्र राजा के हाथों में आ गया था।

तत्कालीन राजतंत्र क्षेत्रीय थे।

No.-16. राजपद के वंशानुगत होने एवं क्षेत्रीय राज्यों के उदय होने के फलस्वरूप सभा, समिति, विदथ आदि कबीलाई संस्थाओं का पतन हो गया था।

No.-17. उत्तर-वैदिककालीन प्रशासन में सेनानी, पुरोहित, ग्रामणी, राजन्य (राजकृतियों) की भागीदारी होने लगी थी।

उत्तर-वैदिककालीन सामाजिक व्यवस्था

No.-1. उत्तर-वैदिककालीन समाज में कर्म से अधिक वर्ण को महत्त्व दिया जाने लगा था

No.-2. ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, समाज के सर्वश्रेष्ठ वर्ग माने जाते थे.

No.-3.  ये दोनों उत्पादन के नियन्त्रक थे.

No.-4. वैश्य और शूद्र इस युग के उत्पादक थे, जिन्हें किसी भी तरह की सुविधा प्राप्त नहीं थी.

No.-5. सभी चारों वणों की दिनचर्या, खान-पान, आचार-विचार एवं विवाह सम्बन्धी नियम अलग-अलग ये ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य उपनयन संस्कार के अधिकारी थे, लेकिन शूद्रों को उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं था.

No.-6. शूद्रों को अछूत एवं अस्पृश्य माना जाता था. उनके छूने को निदंदनीय माना जाता था।

No.-7. श्रेष्ठता एवं अधिक धन प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण एवं क्षत्रियों में संघर्ष होते थे.

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No.-8. ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ, क्षत्रियों को दूसरे स्थान पर एवं उत्पादन करने वाले वैश्यों को तीसरे स्थान पर माना जाता था.

No.-9. वैश्य सैनिक सेवाएँ भी देते थे.

No.-10. शूद्र सबसे निम्नतर वर्ग था.

No.-11. शूद्र उच्च वर्गों की सेवा करते थे एवं अनेक प्रतिबन्धों को सहते थे.

No.-12. शूद्र धार्मिक कर्मकाण्डों में भाग नहीं ले सकते.

No.-13. वैदिककाल में अन्तरजातीय विवाह का प्रचलन था, लेकिन शूद्रों से विवाह करना धर्मविरोधी, निदंनीय एवं कुकृत्य माना जाता था.

No.-14. आगे चलकर वर्णव्यवस्था की जटिलता के फलस्वरूप जाति व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ.

No.-15. वैदिक साहित्य में भूमि के दान एवं भूमि की खरीद का उल्लेख मिलता है.

No.-16. स्त्री दासियों उच्च वर्ण के लोगों के अनाज की पिसाई का कार्य करती थीं.

No.-17. वैदिककाल में पितृसत्तात्मक तत्त्व प्रवल हो गया था.

No.-17. जिसके फलस्वरूप पुत्रियों का जीवन अभिशाप समझा जाने लगा था.

No.-18. ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ के अनुसार पुत्र परिवार का रक्षक एवं पुत्रियाँ दुःख का मूल थीं.

No.-19. ‘मैत्रायणीसंहिता’ के मतानुसार जुआ और शराब के साथ स्त्रियाँ भी पुरुष के लिए एक दुर्गुण थी.

No.-20. उच्च वर्गों में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी.

No.-21. पहली पत्नी को मुख्य पत्नी मानकर उसे विशेषाधिकार प्रदान किये जाते थे.

No.-22. कन्याओं के वेचने एवं दहेज लेने की प्रथा उत्तर-वैदिककाल में प्रचलन में आने लगी थी.

No.-23. स्त्रियाँ पुरुषों के नियन्त्रण में ही शिक्षा, संगीत, कला आदि का ज्ञान प्राप्त करती थी.

No.-24. एक आर्य की आय 100 वर्ष मानकर सामाजिक व्यवस्था में आश्रम प्रणाली प्रचलित थी.

No.-25. आश्रम क्रमशः 25. 25 वर्ष की अवधि के निम्नलिखित चार थे

  1. ब्रह्मचर्याश्रम-प्रथम 25 वर्ष
  2. गृहस्थाश्रम-25 से 50 वर्ष की अवधि
  3. वानप्रस्थाश्रम-50 से 75 वर्ष की अवधि
  4. संन्यासाश्रम-75 से 100 वर्ष की अवधि

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No.-1. ब्रह्मचर्याश्रम में कठोर नियम, अनुशासन के साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी.

No.-2. गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर विवाह कर पुत्र पैदा करना एवं अतिथि सत्कार करना प्रमुख लक्ष्य था.

No.-3. यह सर्वश्रेष्ठ आश्रम था, जिसमें पुत्र अपने पिता के कर्ज से मुक्त होता था.

No.-4. वानप्रस्थाश्रम में त्याग का जीवन व्यतीत करना पड़ता था.

No.-5. संन्यासाश्रम में घूमते हुए संन्यासी का जीवन व्यतीत कर मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना पड़ता था.

No.-6. धूम-घूम कर उपदेश देने के कारण संन्यासियों को परिव्राजक’ कहा जाता था.

No.-7. शूद्र और स्त्रियों को छोड़कर सबका उपनयन संस्कार कराना अत्यावश्यक था.

No.-8. विद्यार्थी भी उपनयन संस्कार कराता था.

No.-9. शिक्षण संस्थाएँ अनुदान से चलती थीं.

No.-10. राजा द्वारा शिक्षा की व्यवस्था नहीं की जाती थी.

No.-11. 12 वर्ष तक गरुकल में विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी.

No.-12. शिक्षा मौखिक थी।

उत्तर-वैदिकयुगीन आर्थिक स्थिति

No.-1. उत्तर-वैदिककाल में आर्य स्थायी ग्रामों में निवास करने लगे थे.

No.-2. कृषि उनके जीवन का मूलभूत आधार बन चुकी थी.

No.-3. उत्तर-वैदिक साहित्य में ‘धातु वाले चोंचयुक्त फाल का’ उल्लेख प्राप्त होता है.

No.-4. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, विहार, बंगाल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 900 ई. पू. अवधि के उत्खनन से लोहे के प्रमाण प्राप्त हुए हैं.

No.-5. 500 ई. पू. का लोहे का बना हल का फाल जखेड़ा (वर्तमान एटा उत्तर प्रदेश) से उत्खनन के दौरान प्राप्त हुआ है

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No.-6. श्याम अयस् नामक धातु का वर्णन साहित्य में कई बार हुआ है, जो कृषि उपकरण बनाने के काम में आती थी.

No.-7. अंतरजीखेड़ा एवं हस्तिनापुर से इस काल में जो, गेहूँ, चावल एवं जंगली गन्ने की खेती के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं.

No.-8. खादिर एवं कत्था लकड़ियों से विशाल हल बनते थे.

No.-9. काटकसंहिता में 24 बैलों से हल खींचने का उल्लेख मिलता है.

No.-10.  उत्तर-वैदिककाल में सिंचाई एवं गोबर के खाद देने की विधि का विकास हो चका था.

No.-11. पशओं में भैंस भी अव आर्यों द्वारा अपनाई जाने लगी थीं. दूध, ऊन, चमड़ा, माँस के कारण पशुओं का व्यापारिक उपयोग होने लगा था.

No.-12. वैदिककाल में रंग-बिरंगे बर्तनों का निर्माण होता था, जिन्हें चित्रित-धूसर मृदुभाण्ड (P.G.W. या Painted Grey Ware) कहा जाता था.

No.-13. वैदिककाल में व्यवसायी संगठन में रहते थे एवं उनके प्रधान के लिए श्रेष्टी, गण, गणपति जैसे शब्दों को प्रयोग में लिया जाता था.

No.-14. बढ़ई, चर्मकार, धातुकर्मी एवं सूत कातने, वस्त्र बुनने की प्रक्रिया प्रचलित थी.

No.-15. उत्तर-वैदिक साहित्य में कुलालों (कुम्भकारों) एवं कुलाल-चक्र (चाक) का उल्लेख मिलता है.

No.-16. ‘शतपथ ब्राह्मण’ के अनुसार कर्ज देने, व्याज लेने की प्रथा इस काल में प्रारम्भ हो चुकी थी.

No.-17. निष्क, सतमान एवं कृष्णल उत्तर-वैदिककालीन मूल्यों की महत्त्वपूर्ण इकाइयाँ थीं, जिन्हें सिक्कों की श्रेणियों में गिना जाता था.

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No.-18. वैदिककाल में सीसा, चाँदी, टिन का उपयोग किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है.

No.-19. उत्तर-वैदिककालीन धार्मिक स्थिति

No.-20. उत्तर-वैदिक काल का धार्मिक जीवन रूढ़िवादी, आडम्बरपूर्ण एवं कर्मकाण्ड प्रधान बन चुका था.

No.-21. धार्मिक जीवन के सर्वेसर्वा पुरोहित बन गए थे.

No.-22. ऋग्वैदिककालीन देवता इन्द्र, वरुण, मित्र, अग्नि का स्थान गौण हो गया था एवं शिव, विष्णु, ब्रह्मा इस काल के श्रेष्ठ देवता बन गये थे.

No.-23. वैदिककाल में यक्ष, गन्धर्व, दिग्पाल देवताओं के सहायक के रूप में सामने आये थे.

No.-24. ऋग्वैदिककालीन देवियों उषा एवं अदिति का स्थान अप्सरा एवं यक्षिणियों ने ले लिया था.

No.-25. उत्तर-वैदिककाल में अवतारवाद की धारणा प्रबल हुई एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिमूर्ति स्वरूप में प्रमुख देवता बन गये.

No.-26. ब्रह्मा को विश्व का सृष्टिकर्ता, रुद्र या शिव को पशुओं का देवता एवं विष्णु को पालनकर्ता माना जाता था.

No.-27. पूषन् ऋग्वैदिककाल में पशुओं का देवता, शूद्रों के देवता के रूप में पहचाना जाने लगा था.

No.-28. अंतरजीखेड़ा से प्राप्त गोलाकार अग्निकुण्ड एवं कौशाम्बी से प्राप्त यज्ञवेदी मूर्तिप्रथा के प्रचलन के साक्ष्य स्पष्ट करते हैं.

No.-29. ब्राह्मण श्रेष्ठ समझे जाते थे एवं क्षत्रिय ब्राह्मणों के संरक्षक बन गये थे.

No.-30. तप और भक्ति के स्थान पर यज्ञ एवं बलि पूर्णरूप से उत्तर-वैदिककाल में आ चुकी थी.

No.-31. यज्ञों के सम्पादन में पुरोहितों का सहयोगी होना आवश्यक था.

No.-32. वैदिककाल में राजसूय यज्ञ करने वाले पुरोहित को सोना, वस्त्र, सामान, जमीन एवं 2,40,000 गायें दान में दी जाती थीं.

No.-33. गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त विभिन्न संस्कार उत्तर-वैदिककालीन संस्कृति में प्रचलित थे.

No.-34. वैदिककाल में कर्मकाण्ड एवं आडम्बरों की भर्त्सना करने की दिशा में उपनिषदों का जन्म हुआ, जिन्होंने अद्वैतवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया.

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